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हज़ार गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से गुज़रे हैं - सूफ़ी तबस्सुम कविता - Darsaal

हज़ार गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से गुज़रे हैं

हज़ार गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से गुज़रे हैं

वो क़ाफ़िले जो तिरी रहगुज़र से गुज़रे हैं

अभी हवस को मयस्सर नहीं दिलों का गुदाज़

अभी ये लोग मक़ाम-ए-नज़र से गुज़रे हैं

हर एक नक़्श पे था तेरे नक़्श-ए-पा गुमाँ

क़दम क़दम पे तिरी रहगुज़र से गुज़रे हैं

न जाने कौन सी मंज़िल पे जा के रुक जाएँ

नज़र के क़ाफ़िले दीवार-ओ-दर से गुज़रे हैं

रहील-ए-शौक़ से लर्ज़ां था ज़िंदगी का शुऊर

न जाने किस लिए हम बे-ख़बर से गुज़रे हैं

कुछ और फैल गईं दर्द की कठिन राहें

ग़म-ए-फ़िराक़ के मारे जिधर से गुज़रे हैं

जहाँ सुरूर मयस्सर था जाम ओ मय के बग़ैर

वो मय-कदे भी हमारी नज़र से गुज़रे हैं

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In Hindi By Famous Poet Sufi Tabassum. is written by Sufi Tabassum. Complete Poem in Hindi by Sufi Tabassum. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.