अफ़्साना-हा-ए-दर्द सुनाते चले गए
अफ़्साना-हा-ए-दर्द सुनाते चले गए
ख़ुद रोए दूसरों को रुलाते चले गए
भरते रहे अलम में फ़ुसून-ए-तरब का रंग
इन तल्ख़ियों में ज़हर मिलाते चले गए
अपने नियाज़-ए-शौक़ पे था ज़िंदगी को नाज़
हम ज़िंदगी के नाज़ उठाते चले गए
हर अपनी दास्ताँ को कहा दास्तान-ए-ग़ैर
यूँ भी किसी का राज़ छुपाते चले गए
मैं जितना उन की याद भुलाता चला गया
वो और भी क़रीब-तर आते चले गए
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