तिरी ज़ुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म देखते हैं
तिरी ज़ुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म देखते हैं
हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं
ये हालत हुई है जुनूँ में हमारी
ख़ुशी देखते हैं न ग़म देखते हैं
बहुत देख ली है ज़माने की गर्दिश
मुक़द्दर का अब ज़ेर-ओ-बम देखते हैं
तसव्वुर में हैं जिन के जल्वे तुम्हारे
वो हुस्न-ए-दो-आलम को कम देखते हैं
झगड़ते हैं शैख़-ओ-बरहमन मगर हम
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
सर-ए-बज़्म है एहतियात आज ऐसी
न तुम देखते हो न हम देखते हैं
किसी चश्म-ए-मयगूँ में हम आज 'रिफ़अत'
छलकते हुए जाम-ए-जम देखते हैं
(621) Peoples Rate This