सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं
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तेरे जाने में और आने में
ये सिखाया है दोस्ती ने हमें
उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े
इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो
अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है
शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया
हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
ज़िंदगी तुझ को जिया है कोई अफ़्सोस नहीं
मेरे रुकते ही मिरी साँसें भी रुक जाएँगी
फ़लसफ़े इश्क़ में पेश आए सवालों की तरह
हम से पूछो न दोस्ती का सिला