आशिक़ी हो कि बंदगी 'फ़ाख़िर'
बे-दिली से तो इब्तिदा न करो
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अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है
तुम न घबराओ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देख कर
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है
देखने वालो तबस्सुम को करम मत समझो
पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं
शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया
मेरे दुख की कोई दवा न करो
उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े
दिल के दीवार-ओ-दर पे क्या देखा
हर तरफ़ ज़ीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त
इश्क़ है इश्क़ ये मज़ाक़ नहीं
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो