इन्द्र-धनुष बन जाएँ
समय है एक समुंदर
जुग सदियाँ और साल
मौसम माह और हफ़्ते
रात और दिन
शाम-ओ-सहर
बहर-ए-वक़्त के क़तरे हैं सब
इस सागर के कोई नहीं हैं किनारे
कोई सफ़ीना पार नहीं कर पाया इस को
एक बुलबुले की गोदी में
तुम मैं हम सब बहते हैं
इस से क़ब्ल कि हम भी यहीं पर
ग़र्क़ यूँ ही हो जाएँ
क्यूँ न हवा के पँख लगा कर उड़ जाएँ
सावन रुत के धुले हुए से आसमान में
आज के डूबते सूरज से हम आँख मिलाएँ
पुल दो पुल को
इन्द्र-धनुष बन जाएँ
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