वो तमाशा हूँ हज़ारों मिरे आईने हैं
एक आईने से मुश्किल है अयाँ हो जाऊँ
Mir Taqi Mir
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बग़ैर साग़र ओ यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे
ऐ अहल-ए-नज़र सोज़ हमीं साज़ हमीं हैं
शौक़ रातों को है दरपय कि तपाँ हो जाऊँ
दिन को बहर-ओ-बर का सीना चीर कर रख दीजिए
मैं ने कहा कि तजज़िया-ए-जिस्म-ओ-जाँ करो
शायद रुख़-ए-हयात से सरके नक़ाब और
शौक़ रातों को है दर पे कि तपाँ हो जाऊँ
यारब सराब-ए-अहल-ए-हवस से नजात दे
बग़ैर-ए-साग़र-ओ-यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे
हम आहुवान-ए-शब का भरम खोलते रहे
और खुल जा कि मआ'रिफ़ की गुज़रगाहों में
उठो ज़माने के आशोब का इज़ाला करें