मदद ऐ ख़याल-ए-माज़ी ज़रा आइना उठाना
मदद ऐ ख़याल-ए-माज़ी ज़रा आइना उठाना
मैं बदल गया हूँ ख़ुद ही कि बदल गया ज़माना
मिरे ख़ालिक़-ए-गुलिस्ताँ ये समाँ न फिर दिखाना
कि ख़ुद अपनी रौशनी में नज़र आए आशियाना
ये है जिद्दत-ए-तख़य्युल तो भला कहाँ ठिकाना
मिलें बिजलियों के तिनके तो बनाऊँ आशियाना
ये क़फ़स क़फ़स न रहता नज़र आता आशियाना
मिरे बाल-ओ-पर से पहले मिरे दिल का टूट जाना
ये न पूछ फूल बरसे कि गिरी दिलों पे बिजली
ज़रा देख आइने में कभी अपना मुस्कुराना
मिरा एक एक आँसू ग़म-ए-फ़िक्र-ए-दो-जहाँ है
कभी ख़ुश्क करना दामन कभी आस्तीं सुखाना
रग-ओ-पै में बर्क़ दौड़े यही लुत्फ़-ए-ज़िंदगी है
मिरे मुस्कुराने वाले यूँही मुस्कुराए जाना
मिरे शाम-ए-ग़म की ज़ीनत मिरे आँसुओं के तारो
तुम्हें काम क्या सहर से कहीं तुम न डूब जाना
कहूँ क्या 'सिराज' तुम से जो गुज़र रही है दिल पर
ये क़फ़स की ज़िंदगी और ये बहार का ज़माना
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