जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है
जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है
मरहम-ए-वस्ल उस कूँ शाफ़ी है
होश खोने को मय नहीं दरकार
गर्दिश-ए-चश्म-ए-मस्त काफ़ी है
बे-ख़ती में अयाँ है सब्ज़ा-ए-ख़त
तेरे आरिज़ में बस कि साफ़ी है
बख़्श मेरे गुनाह कूँ आ मिल
ख़त नहीं ये ख़त-ए-मुआफ़ी है
गुल-बदन कूँ कहो कि सैर कूँ आ
आज हर गुल चमन में लाफ़ी है
ग़ज़ब-ए-यार सीं न हो ग़मगीं
जौर नहीं मेहर की तलाफ़ी है
रिश्ता-ए-आह-ए-आतिशीं सें 'सिराज'
मुज कूँ हर रात शोला-बाफ़ी है
(472) Peoples Rate This