गुल-रुख़ों ने किए हैं सैर का ठाट
गुल-रुख़ों ने किए हैं सैर का ठाट
गुलशन-आबाद का भरा है हाट
तेग़-ए-अबरू सें मैं शहीद हुआ
इस सुरूही का क्या बला है काट
दिल में आ राह-ए-चश्म-ए-हैराँ सें
खुल रहे हैं मिरी पलक के पाट
ज़हर हैं उस कूँ नेमत-ए-अलवान
लज़्ज़त-ए-इश्क़ की जिसे है चाट
नहीं असर तीर-ए-आह कूँ इस में
दिल-ए-संगीं तिरा है लोहा लाट
पंजा-ए-इश्क़ के शिकंजा सें
मैं हुआ शश-जिहत में बारा बाट
ऐ 'सिराज' अश्क के चराग़ों कूँ
नए मिज़्गाँ सें हम ने बाँधे ठाट
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