ग़म की जब सोज़िश सीं महरम होवेगा
ग़म की जब सोज़िश सीं महरम होवेगा
चश्मा-ए-ख़ुर्शीद शबनम होवेगा
याद लावेगा कभी तो मुझ कूँ यार
शम्अ बिन परवाना पर कम होवेगा
आशिक़ ओ माशूक़ में सालिस है इश्क़
सुल्ह का पैग़ाम बाहम होवेगा
कुफ़्र ओ ईमाँ दो नदी हैं इश्क़ कीं
आख़िरश दोनो का संगम होवेगा
सर्व-क़द के बिन अबस है सैर-ए-बाग़
बार-ए-ग़म सीं सर्व भी ख़म होवेगा
गर करे अहवाल-ए-शबनम पर नज़र
रुत्बा-ए-ख़ुर्शीद क्या कम होवेगा
काबा-ए-कू-ए-सनम में ऐ 'सिराज'
अश्क मेरा आब-ए-ज़मज़म होवेगा
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