फ़स्ल-ए-गुल का ग़म दिल-ए-नाशाद पर बाक़ी रहा
फ़स्ल-ए-गुल का ग़म दिल-ए-नाशाद पर बाक़ी रहा
हश्र लग ये मुज़लिमा सय्याद पर बाक़ी रहा
खोल कर ज़ुल्फ़ों कूँ आया सर्व-क़द जब बाग़ में
नक़्श-ए-हैरत तूर्रा-ए-शमशाद पर बाक़ी रहा
जल गया परवाना पन मुझ सा समुंदर-ख़ू नहीं
ये सुख़न शागिर्द का उस्ताद पर बाक़ी रहा
आशिक़ी में कब रवा है इस तरह की ज़ालिमी
ख़ून-ए-शीरीं गर्दन-ए-फ़रहाद पर बाक़ी रहा
रह गए ज़ौक़-ए-तबस्सुम में तग़ाफ़ुल के शहीद
बिस्मिलों का ख़ूँ-बहा जल्लाद पर बाक़ी रहा
उल्फ़त-ए-लैला ने मजनूँ का मिटाया सब निशाँ
नाम उस का सफ़्हा-ए-ईजाद पर बाक़ी रहा
खोल चश्म-ए-लुत्फ़ दे जागीर मक़्सूद-ए-'सिराज'
शम्अ-रू परवाना-दिल सय्याद पर बाक़ी रहा
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