आलम के दोस्तों में मुरव्वत नहीं रही
आलम के दोस्तों में मुरव्वत नहीं रही
शर्म-ओ-हया-ओ-मेहर व शफ़क़त नहीं रही
ज़ाहिर में क्या रफ़ीक़ कहाते हैं आप कूँ
लेकिन उनों के दिल में मोहब्बत नहीं रही
मिलते हैं रास्ती सीं जो कोई कज-नज़र मिले
ख़्वाबों में पाक-बाज़ की हुर्मत नहीं रही
हर ख़ार बुल-हवस के किए सोहबत इख़्तियार
तो हुस्न गुल-रुख़ों में लताफ़त नहीं रही
ना-लायक़ों में उम्र कूँ करनाँ अबस तलफ़
हम-सोहबती की उन में लियाक़त नहीं रही
भूले हैं हर सनम के करिश्मे पे होश कूँ
इन ज़ाहिदों में कश्फ़-ओ-करामत नहीं रही
सिफ़ले हुए अज़ीज़ अज़ीज़ अब हुए ख़राब
बे-जौहरों में क़द्र-ए-शराफ़त नहीं रही
मत हो बहार-ए-गुलशन-ए-दुनिया का अंदलीब
इस फूलबन में बू-ए-रिफ़ाक़त नहीं रही
अब ज़ात-ए-हक़ बग़ैर न रख दोस्ती 'सिराज'
आलम में आश्नाई-ओ-उल्फ़त नहीं रही
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