वीराँ बहुत है ख़्वाब-महल जागते रहो
वीराँ बहुत है ख़्वाब-महल जागते रहो
हम-साए में खड़ी है अजल जागते रहो
जिस पर निसार नर्गिस-ए-शहला की तमकेनत
वो आँख इस घड़ी है सजल जागते रहो
ये लम्हा-ए-उमीद भी है वक़्त-ए-ख़ौफ़ भी
हासिल न होगा इस का बदल जागते रहो
जिन बाज़ुओं पे चारागरी का मदार था
वो तो कभी के हो गए शल जागते रहो
ज़ेहनों में था इरादा-ए-शब-ख़ून कल तलक
अब हो रहा है रू-ब-अमल जागते रहो
जिस रात में न हिज्र हो ने वस्ल 'अजमली'
उस रात में कहाँ की ग़ज़ल जागते रहो
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