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बयाबानों पे ज़िंदानों पे वीरानों पे क्या गुज़री - सिकंदर अली वज्द कविता - Darsaal

बयाबानों पे ज़िंदानों पे वीरानों पे क्या गुज़री

बयाबानों पे ज़िंदानों पे वीरानों पे क्या गुज़री

जहान-ए-होश में आए तो दीवानों पे क्या गुज़री

दिखाऊँ तुझ को मंज़र क्या गुलों की पाएमाली का

चमन से पूछ ले नौ-ख़ेज़ अरमानों पे क्या गुज़री

बहार आए तो ख़ुद ही लाला ओ नर्गिस बता देंगे

ख़िज़ाँ के दौर में दिलकश गुलिस्तानों पे क्या गुज़री

निशान-ए-शम-ए-महफ़िल है न ख़ाक-ए-अहल-ए-महफ़िल है

सहर अब पूछती है रात परवानों पे क्या गुज़री

हमारा ही सफ़ीना तेरे तूफ़ानों का बाइस था

हमारे डूबने के बाद तूफ़ानों पे क्या गुज़री

मैं अक्सर सोचता हूँ 'वज्द' उन की मेहरबानी से

ये कुछ गुज़री है अपनों पर तो बेगानों पे क्या गुज़री

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In Hindi By Famous Poet Sikandar Ali Wajd. is written by Sikandar Ali Wajd. Complete Poem in Hindi by Sikandar Ali Wajd. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.