उठे हैं हाथ तो अपने करम की लाज बचा
वगरना मेरी दुआ क्या मिरी तलब क्या है
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अब यही बेहतर है नक़्श-ए-आब होने दे मुझे
एक बे-मंज़र उदासी चार-सू आँखों में है
आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
उस ने सोचा भी नहीं था कभी ऐसा होगा
ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
भूली-बिसरी बात है लेकिन अब तक भूल न पाए हम
बे-कराँ समझा था ख़ुद को कैसे नादानों में था
होंटों पे सुख़न आँखों में नम भी नहीं अब के
एक बेचैन समुंदर है मिरे जिस्म में क़ैद
दिल-ए-आईना-सामाँ पारा पारा कर के देखा जाए
वही रंग-ए-रुख़ पे मलाल था ये पता न था
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है