नाख़ुदा हो कि ख़ुदा देखते रह जाते हैं
कश्तियाँ डूबती हैं उस के मकीं डूबते हैं
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दिल ही गिर्दाब-ए-तमन्ना है यहीं डूबते हैं
न कोई नक़्श न पैकर सराब चारों तरफ़
शरीक-ए-ग़म कोई कब मो'तबर निकलता है
एक बे-मंज़र उदासी चार-सू आँखों में है
नैरंग-ए-जहाँ रंग-ए-तमाशा है तो क्या है
उसे यक़ीन न आया मिरी कहानी पर
बे-कराँ समझा था ख़ुद को कैसे नादानों में था
आग देखूँ कभी जलता हुआ बिस्तर देखूँ
ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को चुप आस्तीं को तर पा कर