मैं ने हँसने की अज़िय्यत झेल ली रोया नहीं
ये सलीक़ा भी कोई आसान जीने का न था
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आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है
दिल-ए-आईना-सामाँ पारा पारा कर के देखा जाए
अजीब धुँद है आँखों को सूझता भी नहीं
न कोई नक़्श न पैकर सराब चारों तरफ़
होंटों पे सुख़न आँखों में नम भी नहीं अब के
रात हुई फिर हम से इक नादानी थोड़ी सी
एक बेचैन समुंदर है मिरे जिस्म में क़ैद
ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
मैं भी आवारा हूँ तेरे सात आवारा हवा
अब यही बेहतर है नक़्श-ए-आब होने दे मुझे