मैं वो टूटा हुआ तारा जिसे महफ़िल न रास आई
मैं वो शोला जो शब भर आँख के पानी में रहता है
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उस ने सोचा भी नहीं था कभी ऐसा होगा
हमारे नाम लिखी जा चुकी थी रुस्वाई
बस एक बूँद थी औराक़-ए-जाँ में फैल गई
अब यही बेहतर है नक़्श-ए-आब होने दे मुझे
मैं भी आवारा हूँ तेरे सात आवारा हवा
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है
शरीक-ए-ग़म कोई कब मो'तबर निकलता है
अपने सीने को मिरे ज़ख़्मों से भरने वाली
मैं ने हँसने की अज़िय्यत झेल ली रोया नहीं
बे-कराँ समझा था ख़ुद को कैसे नादानों में था
आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
प्यासा जो मेरे ख़ूँ का हुआ था सो ख़्वाब था