ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
ये भी हिम्मत नहीं अब झाँक के अंदर देखूँ
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होंटों पे सुख़न आँखों में नम भी नहीं अब के
आग देखूँ कभी जलता हुआ बिस्तर देखूँ
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को चुप आस्तीं को तर पा कर
अजीब धुँद है आँखों को सूझता भी नहीं
मौज-ए-ख़याल-ए-यार ग़म-ए-आसार आई है
एक बे-मंज़र उदासी चार-सू आँखों में है
मैं वो टूटा हुआ तारा जिसे महफ़िल न रास आई
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है
बे-कराँ समझा था ख़ुद को कैसे नादानों में था
शरीक-ए-ग़म कोई कब मो'तबर निकलता है
मैं ने हँसने की अज़िय्यत झेल ली रोया नहीं
नाख़ुदा हो कि ख़ुदा देखते रह जाते हैं