इक लहू की बूँद थी लेकिन कई आँखों में थी
एक हर्फ़-ए-मो'तबर था और कई मानों में था
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उस ने सोचा भी नहीं था कभी ऐसा होगा
एक बे-मंज़र उदासी चार-सू आँखों में है
उसे यक़ीन न आया मिरी कहानी पर
हमारे नाम लिखी जा चुकी थी रुस्वाई
बे-कराँ समझा था ख़ुद को कैसे नादानों में था
होंटों पे सुख़न आँखों में नम भी नहीं अब के
आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
अपने सीने को मिरे ज़ख़्मों से भरने वाली
ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
नैरंग-ए-जहाँ रंग-ए-तमाशा है तो क्या है
अब यही बेहतर है नक़्श-ए-आब होने दे मुझे