अपने सीने को मिरे ज़ख़्मों से भरने वाली
अपने सीने को मिरे ज़ख़्मों से भरने वाली
तू कहाँ खो गई ख़ुश्बू सी बिखरने वाली
मैं तो हो जाऊँगा रू-पोश तह-ए-ख़ाक मगर
एक ख़्वाहिश है मिरे दिल में न मरने वाली
आँखें वीरान हैं होंटों पे सुलगते हैं सराब
तह-नशीं हो गई हर मौज उभरने वाली
इक सकूँ पा गया जा कर तह-ए-दरिया पत्थर
अब बला कोई नहीं सर से गुज़रने वाली
नींद आती है तो इक ख़ौफ़ सा लगता है मुझे
जैसे इक लाश पे हो चील उतरने वाली
ढल गए संग में इस तरह 'मुजीबी' जज़्बात
अब शिकन भी नहीं माथे पे उभरने वाली
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