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ले उड़े ख़ाक भी सहरा के परस्तार मिरी - सिद्दीक़ अफ़ग़ानी कविता - Darsaal

ले उड़े ख़ाक भी सहरा के परस्तार मिरी

ले उड़े ख़ाक भी सहरा के परस्तार मिरी

राह तकते ही रहे शहर के बाज़ार मिरी

तेज़ आँधी ने किए मुझ पे बला के हमले

फिर भी क़ाएम रही मिट्टी की ये दीवार मिरी

छुप गया था मिरे जंगल में कोई साया सा

आज तक उस के तआ'क़ुब में है तलवार मिरी

गूँज उभरेगी मिरी रूह के सन्नाटों से

सल्ब हो जाएगी जब ताक़त-ए-गुफ़्तार मिरी

टूटती जाती हैं साँसों की शिकस्ता कड़ियाँ

फैलती जाती है सहराओं में झंकार मिरी

कितना बे-कैफ़ तमाशा-ए-बहाराँ निकला

जब ख़िज़ाँ बन के बुझी ख़्वाहिश-ए-इज़हार मिरी

हम-सफ़र चाँद न सूरज न सितारे निकले

तेज़ है गर्दिश-ए-दौराँ से भी रफ़्तार मिरी

आतिश-ओ-आब-ओ-हवा ख़ाक-ओ-ख़ला-ओ-अफ़्लाक

कितने क़िलओं' पे ब-यक-वक़्त है यलग़ार मिरी

ग़म ज़माने में कोई जिंस तो 'सिद्दीक़' नहीं

क्या ख़रीदेंगे कोई चीज़ ख़रीदार मिरी

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In Hindi By Famous Poet Siddique Afghani. is written by Siddique Afghani. Complete Poem in Hindi by Siddique Afghani. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.