जब खुले मुट्ठी तो सब पढ़ लें ख़त-ए-तक़्दीर को
जब खुले मुट्ठी तो सब पढ़ लें ख़त-ए-तक़्दीर को
जी में आता है मिटा दूँ हाथ की तहरीर को
जिस्म सन्नाटे के आलम से गुज़रता ही नहीं
बे-हिसी ने और और बोझल कर दिया ज़ंजीर को
बहता दरिया है कि आईना-गरी का सिलसिला
देखता रहता हूँ पानी में तिरी तस्वीर को
सुब्ह-ए-नौ ने काट डाले शाम-ए-ज़ुल्मत के हिसार
किस तरह रोके कोई किरनों की जू-ए-शीर को
धड़कनों की चाप रुक जाए तो आए नींद भी
साथ ले कर फिर रहा हूँ शोर-ए-दार-ओ-गीर को
जब मआ'नी का उजाला ही न हो अल्फ़ाज़ में
क्यूँ करें रौशनी सुख़न की शम-ए-बे-तनवीर को
धुँद साए ख़ौफ़ गहरी चुप हवा की बे-रुख़ी
कैसे आलम में चला हूँ दहर की तस्ख़ीर को
अपनी पेशानी पे शोहरत की लकीरें खींच ले
अपने सीने से लगा ले कतबा-ए-तशहीर को
अक्स आईने से पहले था तो फिर 'सिद्दीकी़' क्यूँ
ख़्वाब से पहले न देखा ख़्वाब की ता'बीर को
(608) Peoples Rate This