उस के जाने पे ये एहसास हुआ है 'शाहिद'
वो जज़ीरा था मिरा दुख से भरे पानी में
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मुझ से कहती हैं वो उदास आँखें
शौक़-ए-आवारा यूँही ख़ाक-बसर जाएगा
आग को फूल कहे जाएँ ख़िर्द-मंद अपने
खुला न उस पे कभी मेरी आँख का मंज़र
शहर सहरा है घर बयाबाँ है
हूँ किस मक़ाम पे दिल में तिरे ख़बर न लगे
न देखा जामा-ए-ख़ुद-रफ़्तगी उतार के भी
चलते चलते चले आए हैं परेशानी में
दिल की बस्ती पे किसी दर्द का साया भी नहीं
निकाल लाया है घर से ख़याल का क्या हो
बजा है ख़्वाब-नवर्दी प ख़्वाब ऐसे हों