हूँ किस मक़ाम पे दिल में तिरे ख़बर न लगे
हूँ किस मक़ाम पे दिल में तिरे ख़बर न लगे
तिरे सलीक़ा-ए-गुफ़तार को नज़र न लगे
घिरा हुआ था तू कुछ नागवार लोगों में
मलाल ये है कि उस वक़्त हम को पर न लगे
असीर-ए-क़र्या-ए-वहशत हूँ एक मुद्दत से
ख़िरद की राह किसी तौर मो'तबर न लगे
मकाँ वही है पर उस का मकीन क्या उट्ठा
सहर भी हो तो वो पहली सी अब सहर न लगे
अकेली शाम खड़ी थी उदास जंगल में
तुयूर बा-ख़बर ओ आश्ना-शजर न लगे
सज़ा-ए-जज़्बा ओ एहसास-ए-जाँ के साथ रही
वो रोग रोग ही क्या है जो उम्र भर न लगे
बजा है ख़्वाब-नवर्दी प ख़्वाब ऐसे हों
खुले जो आँख तो अपना ही घर खंडर न लगे
जो बा-कमालों की तौक़ीर कम करे 'शाहिद'
हमारे हाथ कोई ऐसा भी हुनर न लगे
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