दीवार क्या गिरी मिरे ख़स्ता मकान की
लोगों ने मेरे सेहन में रस्ते बना लिए
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ज़र्द चेहरों से निकलती रौशनी अच्छी नहीं
गाँव गाँव ख़ामोशी सर्द सब अलाव हैं
लब-ए-इज़हार पे जब हर्फ़-ए-गवाही आए
आँधी चली तो गर्द से हर चीज़ अट गई
हर इक क़दम पे ज़ख़्म नए खाए किस तरह
मल्बूस जब हवा ने बदन से चुरा लिए
जब चली ठंडी हवा बच्चा ठिठुर कर रह गया
लहू में डूब के तलवार मेरे घर पहुँची
मुसाफ़िरों में अभी तल्ख़ियाँ पुरानी हैं
जलते जलते बुझ गई इक मोम-बत्ती रात को