ज़िंदा हो जाता हूँ मैं जब यार का आता है ख़त
ज़िंदा हो जाता हूँ मैं जब यार का आता है ख़त
रूह-ए-ताज़ा मुर्दा-दिल के वास्ते लाता है ख़त
तहनियत-नामा नहीं ये ऐ मिरे पैग़ाम्बर
उस से कहना अश्क-ए-ख़ूँ से सुर्ख़ हो जाता है ख़त
सर-ज़मीन-ए-क़ाफ़ पर है फ़ौज-ए-ज़ंगी का हुजूम
ये समाँ तेरे रुख़-ए-अनवर पे दिखलाता है ख़त
धमकियाँ तहरीर हों या ज़ुल्म का मज़मून हो
फिर ये मेरे दिल को ऐ दिलदार बहलाता है ख़त
दे के ख़त क़ासिद से वापस कर लिया ये कह के हाए
उस को होती है तसल्ली जब मिरा जाता है ख़त
हालत-ए-गिर्या में नामा-बर की कुछ हाजत नहीं
अश्क के सैलाब में बहता हुआ जाता है ख़त
क्या शब-ए-फ़ुर्क़त की तेरी बे-क़रारी दर्ज है
नामा-बर को क्यूँ तिरा ऐ 'बर्क़' तड़पाता है ख़त
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