अबस है दूरी का उस के शिकवा बग़ल में अपने वो दिल-रुबा है
अबस है दूरी का उस के शिकवा बग़ल में अपने वो दिल-रुबा है
चुभी है क़ालिब में जिस तरह जाँ उसे तरीक़े से वो छुपा है
मकाँ भी है वो मकीं भी है वो वही मिला है वही जुदा है
उसी का जल्वा हर एक सू है वही है ज़ाहिर वही छुपा है
ग़म-ए-मोहब्बत है उस का जिस को नहीं वो ग़म ऐन है वो राहत
ख़राब जो इश्क़ में है उस के नहीं वो बिगड़ा बना हुआ है
न पारसाई नमाज़ से है न रोज़ा-दारी है ज़ोहद-ओ-तक़्वा
मय-ए-मोहब्बत पिए जो उस की वही हक़ीक़त में पारसा है
वो रंज आख़िर को होगा राहत वो मर्ग-ए-उम्र-ए-दवाम होगी
जो इश्क़-ए-सादिक़ में मर मिटा तू तो फिर अबस शाकी-ए-जफ़ा है
न कोई दुश्मन न दोस्त अपना न नेक-ओ-बद से हमें तअ'ल्लुक़
जो चश्म-ए-वहदत से हम ने देखा न कुछ बुरा है न कुछ भला है
जो दर्द-ए-हिज्राँ से जाँ-ब-लब है इलाज मुमकिन है उस का क्यूँकर
मसीह समझे हैं जिस को वो ख़ुद मरज़ में उल्फ़त की मुब्तला है
जहाँ में सदहा हज़ार-हा घर बसे जो थे वो उजड़ गए हैं
न होगा वीरान ख़ाना-ए-दिल जहाँ वो बुत आ के बस गया है
जो है तलबगार उस का सादिक़ हुआ है दोनों-जहाँ से फ़ारिग़
न हूर-ओ-ग़िल्माँ का है वो ख़्वाहाँ न वो हसीनों पे शेफ़्ता है
ज़बान-ए-इंसाँ में कब है क़ुदरत करे जो इज़हार-ए-शान-ए-वहदत
न इब्तिदा से है कोई वाक़िफ़ न उस की मा'लूम इंतिहा है
उठा ले फ़ज़्ल-ओ-करम से यारब करीम है और रहीम तू है
जो 'बर्क़' बार-ए-अज़ीम-ए-इस्याँ से गिर के दर पर तिरे पड़ा है
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