ग़म की भट्टी में ब-सद-शौक़ उतर जाऊँगा
ग़म की भट्टी में ब-सद-शौक़ उतर जाऊँगा
तप के कुंदन सा मैं इक रोज़ निखर जाऊँगा
ज़िंदगी ढंग से मैं कर के बसर जाऊँगा
काम नेकी के ज़माने में मैं कर जाऊँगा
मर के जाना है कहाँ मुझ को नहीं ये मालूम
रह के दुनिया में कोई काम तो कर जाऊँगा
ग़म उठा लूँगा जो बख़्शेगा ज़माना मुझ को
तेरे दामन को तो ख़ुशियों से मैं भर जाऊँगा
देखता जाऊँगा मुड़ मुड़ के तुम्हारी जानिब
छोड़ कर जब मैं तुम्हारा ये नगर जाऊँगा
ख़ाक पर गिरने से मिट जाएगी हस्ती मेरी
बन के आँसू तिरे दामन पे ठहर जाऊँगा
लाख बे-रंग हो तस्वीर जहाँ की लेकिन
रंग तस्वीर के ख़ाके में मैं भर जाऊँगा
तू ने इक बार हक़ारत से जो देखा ऐ दोस्त
मैं ज़माने की निगाहों से उतर जाऊँगा
मैं तो बढ़ता ही रहूँगा रह-ए-हक़ में ऐ 'नूर'
क्यूँ समझती है ये दुनिया कि मैं डर जाऊँगा
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