बे-सबब वो न मिरे क़त्ल की तदबीर में था
बे-सबब वो न मिरे क़त्ल की तदबीर में था
उस के हाथों ही से मिटना मिरी तक़दीर में था
मुंतज़िर था तिरा दीवाना-ए-गेसू जिस रात
आलम-ए-चश्म हर इक हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में था
जुम्बिश-ए-लब का गुमाँ होता था आशिक़ को तिरे
इस क़दर लुत्फ़-ए-ख़मोशी तिरी तस्वीर में था
ओ कमाँ-अबरू जो इक तीर लगाया तो क्या
इश्तियाक़ इस से ज़्यादा दिल-ए-नख़चीर में था
मुर्ग़-ए-बिस्मिल सा तड़पता था हर इक मुर्ग़-ए-सहर
असर-ए-तीर मिरे नाला-ए-शब-गीर में था
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