बेजा न था उठ बैठना बेचैनी से मेरा
बेजा न था उठ बैठना बेचैनी से मेरा
शब सामने आँखों के वो तस्वीर खड़ी थी
इक हाथ धरा दिल पे इक अंगुश्त दहन में
यूँ कुश्ता-ए-उल्फ़त की तिरे लाश पड़ी थी
उस गौहर-ए-यकता की जो मैं याद में रोया
हर अश्क-ए-मुसलसल मिरा मोती की लड़ी थी
सदमे से शब-ए-हिज्र के जीता जो बचा तू
बीमार-ए-तप-ए-हिज्र तिरी उम्र बड़ी थी
की उस ने है आसान दम-ए-तेग़ से वर्ना
मंज़िल ये 'शुऊर' अपने लिए सख़्त कड़ी थी
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