अश्क जो आँख में उबलते हैं
अश्क जो आँख में उबलते हैं
दीप दिल के उन्ही से जलते हैं
मौसमों का गिला नहिं करते
गिर के जो आदमी सँभलते हैं
ग़म-ए-जान-ए-बहार के सदक़े
ग़म जहाँ के इसी से टलते हैं
उन को आख़िर जुनूँ से क्या हासिल
पैरहन रोज़ जो बदलते हैं
हम ने गर्मी-ए-शम्अ क्या करनी
गर्मी-ए-शौक़ में पिघलते हैं
वाइज़-ए-ना-समझ पिएँ शर्बत
हम कहाँ ख़ुल्द से बहलते हैं
कैफ़ ओ मस्ती 'शुजाअ' फ़लक तक है
दर्द यूँ क़ल्ब में मचलते हैं
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