तंगी-ए-हैअत से टकराता हुआ जोश-ए-मवाद
शायरी का लुत्फ़ आ जाता है छोटी बहर में
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सातों आलम सर करने के बा'द इक दिन की छुट्टी ले कर
तभी आएगी लबों पर मिरे दिल की बात खुल के
रुख़ हवा का ये कि जैसे उस को आसानी पड़े
ख़ुद फ़रिश्ते तो नहीं हैं जो मुझे ले जा रहे हैं
विज्दान में वो आया इल्हाम हुआ मुझ को
मैं ने सिर्फ़ अपने नशेमन को सजाया साल भर
इस ए'तिबार से बे-इंतिहा ज़रूरी है
हालत उसे दिल की न दिखाई न ज़बाँ की
जैसा मंज़र मिले गवारा कर
रिंद खड़े हैं मिम्बर मिम्बर
जो क़िस्सा था ख़ुद से छुपाया हुआ
पार उतरने के लिए तो ख़ैर बिल्कुल चाहिए