जैसा मंज़र मिले गवारा कर
तब्सिरे छोड़ दे नज़ारा कर
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पार उतरने के लिए तो ख़ैर बिल्कुल चाहिए
उस के आने पे भी नहीं आई
'शुजा' वो ख़ैरियत पूछें तो हैरत में न पड़ जाना
उस को न ख़याल आए तो हम मुँह से कहें क्या
चलो ये तो हादसा हो गया कि वो साएबान नहीं रहा
हज़ार रंग में मुमकिन है दर्द का इज़हार
रिंद खड़े हैं मिम्बर मिम्बर
दो चार नहीं सैंकड़ों शेर उस पे कहे हैं
ख़ुदा को आज़माना चाहिए था
दिल में नफ़रत हो तो चेहरे पे भी ले आता हूँ
इसी पर ख़ुश हैं कि इक दूसरे के साथ रहते हैं
दिन के पास कहाँ जो हम रातों में माल बनाते हैं