दो चार नहीं सैंकड़ों शेर उस पे कहे हैं
इस पर भी वो समझे न तो क़दमों पे झुकें क्या
Jaun Eliya
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उस बेवफ़ा का शहर है और वक़्त-ए-शाम है
करम है मुझ पे किसी और के जलाने को
विज्दान में वो आया इल्हाम हुआ मुझ को
सातों आलम सर करने के बा'द इक दिन की छुट्टी ले कर
अब तेरे लिए हैं न ज़माने के लिए हैं
ये दुनिया-दारी और इरफ़ान का दावा 'शुजा-ख़ावर'
सब का ही नाम लेते हैं इक तुझ को छोड़ कर
उस के आने पे भी नहीं आई
निकाल ज़ात से बाहर निकाल तन्हाई
दिल में नफ़रत हो तो चेहरे पे भी ले आता हूँ
दिन के पास कहाँ जो हम रातों में माल बनाते हैं
हम सूफ़ियों का दोनों तरफ़ से ज़ियाँ हुआ