अपना ख़ालिक़ ख़ुद ही था मेरा ख़ुदा कोई न था
अपना ख़ालिक़ ख़ुद ही था मेरा ख़ुदा कोई न था
इस जहाँ में मुझ से पहले दूसरा कोई न था
रात-भर चलता रहा था चाँद मेरे साथ साथ
दश्त में उस का कहीं भी नक़्श-ए-पा कोई न था
फ़ासले ही फ़ासले थे मंज़िलें ही मंज़िलें
हम-सफ़र कोई न था और रहनुमा कोई न था
वो पयम्बर था खड़ा था इक गली के मोड़ पर
अजनबी बस्ती में उस को जानता कोई न था
दूर तक फैली हुई थीं दर्द की तन्हाइयाँ
दो दिलों के दरमियाँ जब फ़ासला कोई न था
किस क़दर सुनसान थी उस शहर-ए-उल्फ़त की गली
बंद थे सारे दरीचे झाँकता कोई न था
गूँजती थीं जब तुम्हारी याद की ख़ामोशियाँ
दिल के वीराने नगर में जागता कोई न था
जिस्म-ओ-जाँ की क़ैद में रहना पड़ा इक उम्र तक
बच निकलने का कहीं भी रास्ता कोई न था
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