रस्म-ए-गिर्या भी उठा दी हम ने
रस्म-ए-गिर्या भी उठा दी हम ने
आख़िरी शम्अ' बुझा दी हम ने
एक मौहूम तसव्वुर के लिए
रूह की आब गँवा दी हम ने
दरमियान-ए-दिल ओ गुलज़ार-ए-हयात
ग़म की दीवार उठा दी हम ने
राख भी पाए न कोई अपनी
अब के वो आग लगा दी हम ने
सनसनाते रहे तारे पहरों
क्यूँ तिरी बात सुना दी हम ने
हर कड़ी राह में हर मंज़िल पर
तेरे ही ग़म को सदा दी हम ने
आस के बुझते हुए शो'ले को
तेरे दामन से हवा दी हम ने
जब तुझे भूलना चाहा दल ने
इक नए ग़म की सज़ा दी हम ने
कोई ग़ुंचा किसी गोशे में खिला
बाग़ में धूम मचा दी हम ने
कैसी आबाद थी दुनिया 'शोहरत'
कैसी सुनसान बना दी हम ने
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