कुछ हश्र से कम गर्मी-ए-बाज़ार नहीं है
कुछ हश्र से कम गर्मी-ए-बाज़ार नहीं है
वो जिंस हूँ मैं जिस का ख़रीदार नहीं है
इस रात के गम्भीर अँधेरे में है क्या क्या
हासिल तुझे पर दीदा-ए-बेदार नहीं है
मुमकिन हो तो सीने में उतर कर तो मिरे देख
वो लाश हूँ मैं जिस का अज़ा-दार नहीं है
इक तेरे तग़ाफ़ुल ने कमर तोड़ के रख दी
वर्ना ग़म-ए-दुनिया तो मुझे बार नहीं है
हँसता है मिरे सीना-ए-सद-चाक पे क्या क्या
वो जिस के गरेबान में इक तार नहीं है
दिल ख़ूगर-ए-ग़म कौन सा ग़म पा के जियेगा
वर्ना तुझे पाना मुझे दुश्वार नहीं है
किस मुँह से अमाँ चाहूँगा सूरज से दोबारा
सद-शुक्र कि याँ साया-ए-दीवार नहीं है
चाहेगा किसे किस का वफ़ादार रहेगा
ये दिल जिसे ख़ुद से भी अभी प्यार नहीं है
क्या लुत्फ़ है रखता है सर-ए-लुत्फ़-ओ-करम भी
'शोहरत' कि तिरे ग़म का सज़ा-वार नहीं है
(556) Peoples Rate This