दिल उस से लगा जिस से रूठा भी नहीं जाता
दिल उस से लगा जिस से रूठा भी नहीं जाता
काम उस से पड़ा जिस को छोड़ा भी नहीं जाता
दिन रात तड़पता हूँ अब जिस की जुदाई में
वो सामने आए तो देखा भी नहीं जाता
मंज़िल पे पहुँचने की उम्मीद बंधे कैसे
पाँव भी नहीं उठते रस्ता भी नहीं जाता
ये कौन सी बस्ती है ये कौन सा मौसम है
सोचा भी नहीं जाता बोला भी नहीं जाता
अँगारों की मंज़िल में ज़ंजीर-बपा हैं हम
ठहरा भी नहीं जाता भागा भी नहीं जाता
इस मर्तबा छाई है कुछ ऐसी घटा जिस से
खुलना भी नहीं होता बरसा भी नहीं जाता
हर हाल में इतने भी बे-बस न हुए थे हम
दलदल भी नहीं लेकिन निकला भी नहीं जाता
मर जाते थे ग़ैरों के काँटा भी जो चुभता था
ख़ुद क़त्ल हुए लेकिन रोया भी नहीं जाता
काफ़िर हों जो हसरत हो जीने की मगर 'शोहरत'
इस हाल में यारों को छोड़ा भी नहीं जाता
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