हैबत-ए-हुस्न से अल्फ़ाज़ की हैरानी तक
हैबत-ए-हुस्न से अल्फ़ाज़ की हैरानी तक
बात पहुँची थी अभी चाँद की पेशानी तक
आप क्या दिरहम-ओ-दीनार लिए फिरते हैं
हम तो ठुकरा भी चुके तख़्त-ए-सुलैमानी तक
वस्ल के क़िस्से तो तम्हीद हैं सुनते रहिए
बात पहुँचेगी अभी क़ुव्वत-ए-ईमानी तक
क़िस्सा-ए-रफ़्ता मुकम्मल नहीं होगा वर्ना
ज़िक्र जारी रहे अक़दार की अर्ज़ानी तक
आप मोहसिन हैं मगर खेल की मजबूरी है
दिल तो आता ही नहीं राह में सुल्तानी तक
उस ने कुछ सोच के सहरा की तरफ़ मोड़ दिया
प्यास बस पहुँचने वाली थी अभी पानी तक
दफ़अ'तन वक़्त ने रफ़्तार बढ़ा दी वर्ना
भागता मैं भी रहा इक हद-ए-इम्कानी तक
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