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गीली मिट्टी से बदन बनते हुए उम्र लगी - शमशाद शाद कविता - Darsaal

गीली मिट्टी से बदन बनते हुए उम्र लगी

गीली मिट्टी से बदन बनते हुए उम्र लगी

मुझ को सहरा से चमन बनते हुए उम्र लगी

पुख़्तगी फ़िक्र में यक-लख़्त कहाँ आती है

मेरी सोचों को सुख़न बनते हुए उम्र लगी

इब्न-ए-आदम की हवस से मिली सदियों में नजात

बिंते-ए-हव्वा को दुल्हन बनते हुए उम्र लगी

फ़र्क़ हालाँकि बहुत थोड़ा है दोनों में मगर

सर के आँचल को कफ़न बनते हुए उम्र लगी

हम तो समझे थे वो महकेगा गुलों की मानिंद

पर उसे ग़ुंचा-दहन बनते हुए उम्र लगी

चंद लम्हों में तग़य्युर ये नहीं आया है

छल को दुनिया का चलन बनते हुए उम्र लगी

मैं तो बस इतना कहूँगा मिरी मायूसी को

'शाद' आशा की किरन बनते हुए उम्र लगी

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In Hindi By Famous Poet Shmashad Shad. is written by Shmashad Shad. Complete Poem in Hindi by Shmashad Shad. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.