न जब तक दर्द-ए-इंसाँ से किसी को आगही होगी
न जब तक दर्द-ए-इंसाँ से किसी को आगही होगी
न पैदा इश्क़ होगा और न दिल में रौशनी होगी
वो निकले होंगे जब सहन-ए-चमन में बे-नक़ाब हो कर
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी
नमाज़ी जा रहे हैं आज क्यूँ सू-ए-सनम-ख़ाना
बहार-ए-बे-खु़दी शायद वहाँ भी आ गई होगी
न जाने देखिए कब तक रहे मश्क़-ए-सितम मुझ पर
कहाँ तक बेकसी मेरी किसी की दिल-लगी होगी
न कर अब तज़्किरा उस बज़्म-ए-रिंदाँ के उजड़ने का
किसी कम-ज़र्फ़ के आने से महफ़िल उठ गई होगी
हमारी ख़ामुशी कह देगी अफ़्साना ज़माने का
तुम्हारी गुफ़्तुगू मोहताज-ए-शरह-ए-ज़िंदगी होगी
खुलेगा राज़ तेरा 'ज़ब्त' उस दिन उन की महफ़िल में
कि जब दिल की कहानी आँसुओं में ढल गई होगी
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