फ़राज़-ए-दार पे भी मैं ने तेरे गीत गाए हैं
बता ऐ ज़िंदगी तू लेगी कब तक इम्तिहाँ मेरा
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मैं रूह-ए-आलम-ए-इम्काँ में शरह-ए-अज़्मत-ए-यज़्दाँ
कुछ अकेली नहीं मेरी क़िस्मत
असर के पीछे दिल-ए-हज़ीं ने निशान छोड़ा न फिर कहीं का
तीस दिन के लिए तर्क-ए-मय-ओ-साक़ी कर लूँ
पूछते क्या हो जो हाल-ए-शब-ए-तन्हाई था
तीर-ए-क़ातिल का ये एहसाँ रह गया
अजब क्या है जो नौ-ख़ेज़ों ने सब से पहले जानें दीं
आप जाते तो हैं उस बज़्म में 'शिबली' लेकिन
ये नज़्म-ए-आईं ये तर्ज़-ए-बंदिश सुख़नवरी है फ़ुसूँ-गरी है
यार को रग़बत-ए-अग़्यार न होने पाए
तस्ख़ीर-ए-चमन पर नाज़ाँ हैं तज़ईन-ए-चमन तो कर न सके
जम्अ कर लीजिए ग़ैरों को मगर ख़ूबी-ए-बज़्म