मुस्लिम-लीग
लोग कहते हैं कि आमादा-ए-इस्लाह है लीग
ये अगर सच है तो हम को भी कोई जंग नहीं
सग़ा-ए-राज़ से कुछ कुछ ये भनक आती है
कि हम-आहंगी-ए-अहबाब से अब नंग नहीं
फ़र्क़ इतना तो ब-ज़ाहिर नज़र आता है ज़रूर
अब ख़ुशामद का हर इक बात में वो रंग नहीं
अर्ज़-ए-मतलब में ज़बाँ कुछ तो है खुलती जाती
गरचे अब तक भी हरीफ़ों से हम-आहंग नहीं
वो भी अब नक़्द-ए-हुकूमत को परखते हैं ज़रूर
जिन को अब तक भी तमीज़-ए-गुहर-ओ-संग नहीं
क़ौम में फूँकते रहते हैं जो अफ़्सून-ए-वफ़ा
उन की अफ़्साना-तराज़ा का भी वो ढंग नहीं
वो भी कहते हैं कि इस जिंस-ए-वफ़ा की क़ीमत
जिस क़दर मिलती है ज़र्रे के भी हम संग नहीं
आगे थे हल्क़ा-ए-तक़्लीद में जो लोग असीर
सुस्त-रफ़्तार तो अब भी हैं मगर लंग नहीं
आप लिबरल जो नहीं हैं तो बला से न सही
याँ किसी को तलब-ए-अफ़्सर-ओ-औरंग नहीं
काम करने के बहुत से हैं जो करना चाहें
अब भी ये दाएरा-ए-साई-ओ-अमल तंग नहीं
साल में ये जो तमाशा सा हुआ करता है
काम करने का ये अंदाज़ नहीं ढंग नहीं
कुछ तो नज़्म-ओ-नक़्श-ए-मुल्क में भी दीजिए दख़्ल
शेवा-ए-हक़-तलबी है ये कोई जंग नहीं
कुछ न कुछ नज़्म-ए-हुकूमत में है इस्लाह ज़रूर
हम न मानेंगे कि इस आईना में ज़ंग नहीं
कम से कम हाकिम-ए-इज़ला तो हों अहल-ए-वतन
क्या हज़ारों में कोई साहिब-ए-फ़रहंग नहीं
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