कुछ अकेली नहीं मेरी क़िस्मत
कुछ अकेली नहीं मेरी क़िस्मत
ग़म को भी साथ लगा लगाई है
मुंतज़िर देर से थे तुम मेरे
अब जो तशरीफ़ सबा लाई है
निगहत-ए-ज़ुल्फ़ ग़ुबार-ए-रह-ए-दोस्त
आख़िर उस कूचे से क्या लाई है
मौत भी रूठ गई थी मुझ से
ये शब-ए-हिज्र मना लाई है
मुझ को ले जा के मिरी आँख वहाँ
इक तमाशा सा दिखा लाई है
आह को सू-ए-असर भेजा था
वाँ से क्या जानिए क्या लाई है
'शिबली'-ए-ज़ार से कह दे कोई
मुज़्दा-ए-वस्ल सबा लाई है
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