निगह-ए-लुत्फ़ में है उक़्दा-कुशाई मुज़्मर
काम बिगड़े हुए बंदों के सँवर जाते हैं
Habib Jalib
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क्या ख़बर थी कोई रुस्वा-ए-जहाँ हो जाएगा
दम-ए-अख़ीर भी हम ने ज़बाँ से कुछ न कहा
चूम कर आया है ये दस्त-ए-हिनाई आप का
ज़ुल्फ़-ए-जानाँ पे तबीअत मिरी लहराई है
बातों में ढूँडते हैं वो पहलू मलाल का
कसरत-ए-वहदानियत में हुस्न की तनवीर देख
कुछ इशारे वो सर-ए-बज़्म जो कर जाते हैं
वो जब तक अंजुमन में जल्वा फ़रमाने नहीं आते
वो झंकार पैदा है तार-ए-नफ़स में
वो हद से दूर होते जा रहे हैं
शब-ए-फ़िराक़ जो दिल में ख़याल-ए-यार रहा