चूम कर आया है ये दस्त-ए-हिनाई आप का
क्यूँ न रक्खूँ मैं कलेजे से लगा कर तीर को
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दिल दिया है हम ने भी वो माह-ए-कामिल देख कर
वो हद से दूर होते जा रहे हैं
शब-ए-फ़िराक़ जो दिल में ख़याल-ए-यार रहा
ज़ुल्फ़-ए-जानाँ पे तबीअत मिरी लहराई है
क्या ख़बर थी कोई रुस्वा-ए-जहाँ हो जाएगा
क़ुल्ज़ुम-ए-उल्फ़त में वो तूफ़ान का आलम हुआ
बातों में ढूँडते हैं वो पहलू मलाल का
वो जब तक अंजुमन में जल्वा फ़रमाने नहीं आते
दम-ए-अख़ीर भी हम ने ज़बाँ से कुछ न कहा
कुछ इशारे वो सर-ए-बज़्म जो कर जाते हैं
हिजाब-ए-राज़ फ़ैज़-ए-मुर्शिद-ए-कामिल से उठता है