ज़िंदगी रैन-बसेरे के सिवा कुछ भी नहीं
ज़िंदगी रैन-बसेरे के सिवा कुछ भी नहीं
ये नफ़स उम्र के फेरे के सिवा कुछ भी नहीं
जिसे नादान की बोली में सदी कहते हैं
वो घड़ी शाम सवेरे के सिवा कुछ भी नहीं
दिल कभी शहर-ए-सदा-रंग हुआ करता था
अब तो उजड़े हुए डेरे के सिवा कुछ भी नहीं
हाथ में बीन है कानों की लवों में बाले
ये रिया-कार सपेरे के सिवा कुछ भी नहीं
साँस के लहरिये झोंकों से फटा जाता है
जिस्म काग़ज़ के फरेरे के सिवा कुछ भी नहीं
आज इंसान का चेहरा तो है सूरज की तरह
रूह में घोर अँधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
वक़्त ही से है शरफ़ दस्त-ए-दुआ को हासिल
बंदगी साँझ-सवेरे के सिवा कुछ भी नहीं
फ़क़्र मख़दूम है लज-पाल है लख-दाता है
ताज बे-रहम लुटेरे के सिवा कुछ भी नहीं
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