नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए
नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए
कि साथ औज के पस्ती है आसमाँ के लिए
हज़ार लुत्फ़ हैं जो हर सितम में जाँ के लिए
सितम-शरीक हुआ कौन आसमाँ के लिए
मज़े ये दिल के लिए थे न थे ज़बाँ के लिए
सो हम ने दिल में मज़े सोज़िश-ए-निहाँ के लिए
फ़रोग़-ए-इश्क़ से है रौशनी जहाँ के लिए
यही चराग़ है इस तीरा-ख़ाक-दाँ के लिए
सबा जो आए ख़स-ओ-ख़ार-ए-गुलिस्ताँ के लिए
क़फ़स में क्यूँकि न फड़के दिल आशियाँ के लिए
दम-ए-उरूज है क्या फ़िक्र-ए-नर्दबाँ के लिए
कमंद-ए-आह तो है बम-ए-आसमाँ के लिए
सदा तपिश पे तपिश है दिल-ए-तपाँ के लिए
हमेशा ग़म पे है ग़म जान-ए-ना-तवाँ के लिए
वबाल-ए-दोश है इस ना-तवाँ को सर लेकिन
लगा रखा है तिरे ख़ंजर ओ सिनाँ के लिए
बयान-ए-दर्द-ओ-मोहब्बत जो हो तो क्यूँकर हो
ज़बान दिल के लिए है न दिल ज़बाँ के लिए
मिसाल-ए-नय है मिरे जब तलक कि दम में दम
फ़ुग़ाँ है मेरे लिए और मैं फ़ुग़ाँ के लिए
बुलंद होवे अगर कोई मेरा शोला-ए-आह
तो एक और हो ख़ुर्शीद आसमाँ के लिए
चले हैं दैर को मुद्दत में ख़ानक़ाह से हम
शिकस्त-ए-तौबा लिए अर्मुग़ाँ मुग़ाँ के लिए
हजर के चूमने ही पर है हज्ज-ए-काबा अगर
तो बोसे हम ने भी उस संग-ए-आस्ताँ के लिए
न छोड़ तू किसी आलम में रास्ती कि ये शय
असा है पीर को और सैफ़ है जवाँ के लिए
जो पस-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत कहीं यहाँ बिकता
तो मोल लेते हम इक अपने मेहरबाँ के लिए
ख़लिश से इश्क़ की है ख़ार-ए-पैरहन तन-ए-ज़ार
हमेशा इस तिरे मजनून-ए-ना-तवाँ के लिए
तपिश से दिल की ये अहवाल है मिरा गोया
बजा-ए-मग़्ज़ है सीमाब उस्तुख़्वाँ के लिए
मिरे मज़ार पे किस वजह से न बरसे नूर
कि जान दी तिरे रू-ए-अरक़-फ़िशाँ के लिए
इलाही कान में क्या उस सनम ने फूँक दिया
कि हाथ धरते हैं कानों पे सब अज़ाँ के लिए
नहीं है ख़ाना-ब-दोशों को हाजत-ए-सामाँ
असासा चाहिए क्या ख़ाना-ए-कमाँ के लिए
न दिल रहा न जिगर दोनों जल के ख़ाक हुए
रहा है सीने में क्या चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ के लिए
न लौह गोर पे मस्तों की हो न हो तावीज़
जो हो तो ख़िश्त-ए-ख़ुम-ए-मय कोई निशाँ के लिए
अगर उम्मीद न हम-साया हो तो ख़ाना-ए-यास
बहिश्त है हमें आराम-ए-जावेदाँ के लिए
वो मोल लेते हैं जिस दम कोई नई तलवार
लगाते पहले मुझी पर हैं इम्तिहाँ के लिए
सरीह चश्म-ए-सुख़न-गो तिरी कहे न कहे
जवाब साफ़ है पर ताक़त ओ तवाँ के लिए
इशारा चश्म का तेरी यकायक ऐ क़ातिल
हुआ बहाना मिरी मर्ग-ए-ना-गहाँ के लिए
रहे है हौल कि बरहम न हो मिज़ाज कहीं
बजा है हौल-ए-दिल उन के मिज़ाज-दाँ के लिए
बनाया आदमी को 'ज़ौक़' एक जुज़्व-ए-ज़ईफ़
और इस ज़ईफ़ से कुल काम दो-जहाँ के लिए
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